वर्तमान शिक्षा प्रणाली के उद्देश्यों में वैशिष्ट्य इस बात की है कि अच्छे अंक/ग्रेड के साथ हम उत्तीर्ण हों। यही नहीं शिक्षा का मूल उद्देश्य वैश्विक रूप में रोजगार पाने का एकमात्र संसाधन माना जाने लगा है।
राह चलते भीड़ में से किसी एक व्यक्ति विशेष से यह प्रश्न अवश्य कीजिये की आप ने कहाँ तक की शिक्षा ग्रहण की है? और अभी क्या कर रहें हैं। जवाबी रशीद में यदि वह अच्छा विद्यार्थी रहा होगा तो अपनी डिग्रीयाँ गिनकर बता देगा।
और अपने व्यवसायी पहचान को बता देगा। यदि कम तर हुआ तो, डिग्रियों के ऊपर अपने अव्यावसायिक होने के कारणों का मत्था मड़ देगा। जैसे आज से लगभग 5-10 वर्ष पूर्व अभियांत्रिकी के क्षेत्र में रोजगार के मांग के चलते ऐसे व्यावसायिक संस्थानों की भरमार हो गई थी।
जिसके चलते थोक के भाव में कई इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बना दिये गए। गुणवत्ता के मामले चाहे कितना भी पैरामीटर्स से पीछे ही क्यों ना हो? जनाब सेमेस्टर की चढ़ती-फिसलती सीढ़ियों ने कभी मेहनत, कभी नकल तो कभी थोड़ी ऊपर तक की पहुँच के करतब सीखा ही दिये। फलन यह हुआ की वर्तमान में हजारों की संख्या में अभियांत्रिकी के ग्रेजुएट रोजगार की तलाश में रोज भटक रहे हैं।
कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान में तथाकथित अपने आप को विवि के स्कॉलर कहलाने वालों की है। जो शोध सिर्फ इसलिए कर रहें हैं। ताकि शोध के पूरा कर किसी भी निजी या शासकीय महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में अध्यापन रूपी रोजगार मिल सके। वास्तव में शिक्षा का वे उद्देश्य केवल और केवल नौकरियां पाने के संसाधन के रूप में प्रयोग कर रहे हैं।
वे ऐसे विद्यार्थी हैं जो शिक्षा को साधन के रूप में प्रयोग कर भावी समय में केवल सुख भोगने के बेहतर विकल्प तैयार कर सकें इस प्रयास में लगे हैं।
जहाँ रोटी, कपड़ा और मकान के बेसिक जरूरतों से कहीं अधिक, सोशल-स्टेटस, फूहड़ फैशन और कंकरीट के घर को अहंकार के अलंकरण करना बेहद जरूरी है। जहाँ शिक्षा को बाटने या वर्धन की परम्परा नहीं,बल्कि उपस्करों के स्तरों पर स्तर चढ़ाने की भावना है।
प्रश्न उठता है की तम को चीरती शिक्षा का केवल ग्रहण इसलिए हो रहा है कि, कल के भविष्य के अच्छे संसाधन लब्धि बनें? या फिर जिस ज्ञान को हमने ग्रहण किया है। आने वाली पीढ़ी के लिए और संशोधित कर ज्ञान के नवीन स्तरों को प्राप्त करें। वर्तमान में पालक अपनी नवीन पीढ़ी के अनुसंधान रूपी साख पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
मन के विपरीत उन्हे बचपन से ऐसे तैयार किया जा रहा है जैसे फैक्ट्री में कोई यांत्रिक मशीन तैयार किया जा रहा हो। जिसका उद्देश्य है 15-20 साल की ट्रेनिंग के बाद, रोजगार से अर्थ पैदा करें और शेष व्यर्थ है। ऐसे मानसिकता के चलते बच्चे अपनी वास्तविक अभिरुचि को मिथक और पालकों के परामर्श को वास्तविक रूचि बनाकर नकल करने में कुशल अभिनयकार हो जाते हैं।
यह अभिनय लगभग पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। वर्तमान में साहित्य/बौद्धिक संपदा की चोरियां बढ़ने के कारणों को आप किस रूप में देखते हैं? आप कहेंगे यह शॉर्टकट वाली नीति है....! कमजोरी है..!!!
लेकिन आप अभी भी वास्तविक की धरातल से थोड़े दूर हैं। ज्ञातव्य है की उसकी रूचि उस विषय क्षेत्र में बिलकुल कम है, या फिर बचपन से उसी अभिनय को वास्तव मानकर अंधानुकरण कर रहा है। जिससे वह कैसे भी प्राप्त करना चाहता है। चुँकि उसे उस विषय की समझ, दार्शनिकता और नव सृजन का ज्ञान नहीं है इसलिए वह प्लेगरिज्म की ओर बढ़ चला है।
शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य शिक्षा के जाग्रत विद्यार्थियों की आज भी प्रतीक्षा में है। जो अभिनय बाजों की तरह ना होकर, शिक्षा में व्यावसायिक पृष्ठभूमि की तलाश से कोसो इतर, नव सृजन के पथ पर चले। जिसे अहंकार का संग्रहण नहीं और भवसागर के वैषयिक पटल की मरीचिकाओं का विवर्तन पसंद हो। जिसे नव ज्ञान की ललक हो, वहीं सच्चा विद्यार्थी या शोधार्थी है।